Sunday, November 22, 2009

हौंसले की दास्तान

(एवरेस्ट विजेता गौरव शर्मा की जुबान से सुनिए उनकी कामयाबी की कहानी)
यदि हम विश्व के बड़े-बड़े अभियानों, उनकी सफलताओं एवं महान व्यक्तियों की कार्य शैली का अधययन करे तो हमें पता चल जायेगा कि उनकी महान विजयों के मुख्य स्रोत हैं उनकी इच्छाशक्ति व आत्मविश्वास। जिन व्यक्तियों को अपनी इच्छाषक्ति व योग्यता पर विश्वास हो तो वे जिस कार्य को भी हाथ में लेते हैं, उसमें उन्हें विजयश्री मिलती हैं।

शून्य से 48 डिग्री नीचे तापमान, 26 हजार फीट की ऊँचाई, आक्सीजन को तरसते फेफड़े और खून जमा देने वाली ठंड को और बढाती 100 किमी प्रति घण्टा से भी कहीं ज्यादा तेज बर्फीले अंधड़। ये एक दृश्य है माउण्ट एवरेस्ट का, जिस पर विजय तो दूर सिर्फ आरोहण मात्र का ही अवसर दुनिया के गिने-चुने लोगों को मिलता है।
मेरा एवरेस्ट अभियान मानसिक रुप से आरम्भ हुआ 10 वर्ष पूर्व, जब मैने पर्वतारोहण की कुछ पुस्तकों का अध्ययन किया और कुछ साहसी व्यक्तित्वों की जीवनियां पढीं । उन पुस्तकों ने दिमाग में नए व जोशीले विचारों की क्रान्ति को पैदा किया, जिसने मेरे जीवन की राह को बिल्कुल अलग मार्ग दिखा दिया और मार्ग भी ऐसा कि जिसके विषय में सोचने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । कक्षा 12 के पश्चात मैने स्वयं को विभिन्न साहसिक शिविरों व प्रशिक्षण में लगा दिया। मैने विभिन्न वाटर स्पोर्टस कोर्सेज, रेस्क्यू प्रशिक्षण, पर्वतारोहण के विभिन्न स्तरों के कटिन प्रशिक्षणों को लिया। जिस समय में किशोर व युवा बल्लियों उछाल व अपने अकादमिक कैरियर को संवारने में लगा होता है, उस समय मंैने भारतीय उच्च हिमालय के पर्वतों में कठिन प्रशिक्षण में अपने जीवन को खपा दिया। मैंने पर्वतारोहण का प्रशिक्षण नेहरु पर्वतारोहण संस्थान, उत्तरकाशी से भारतीय थल सेना के साथ प्राप्त किया।
पर्वतारोहण के इस शौक को देखकर लगभग सभी ने मुझे बेवकूफ व पागल बताया। वहीं गिने-चुने कुछ व्यक्तियों ने प्रोत्साहित भी किया। वर्ष 2000 में शुरु हुआ साहसिक अभियानों का सिलसिला, जो अभी तक कायम है। कभी चूरु (राजस्थान) से लद्दाख, खरदुँगला तक साईकिल अभियान किये तो कभी हिमालय की स्टाक काँगड़ी, केदारडोम, कामेट जैसे पर्वत शिखरों पर आरोहण किया। इस दौरान मैने कई चोटें खाईं, कभी घुटनों के कार्टिलेज व लिगामेन्ट खराब हुए तो कभी दर्द व सहनशीलता का परीक्षण। धीरे- धीरे पता चला कि दुनिया के इस सबसे खतरनाक खेल को खेलने के लिये किस-किस चीज की व्यक्तित्व में आवश्यकता पड़ती है। वर्ष 2004 से एवरेस्ट पर आरोहण करने की इच्छा ने धीरे-धीरे विराट रुप ले लिया, मूलतः यही से शुरु होती है मेरी एवरेस्ट विजय गाथा।

गत वर्ष 2008 एवरेस्ट अन्तर्राष्ट्रीय अभियान दल हेतु मुझे चयनित किया गया, मैंने पूरे मन से अपनी तैयारियाँ शुरू कर दी, मैं एवरेस्ट पर उत्तरी छोर (तिब्बत-चीन) से चढने वाला था, पर ऐन मौके पर चीन सरकार ने ओलम्पिक सुरक्षा के कारणों से उस मार्ग को सम्पूर्ण दलांे के लिए बन्द कर दिया। उससे मैं काफी आहत हुआ।
आखिरकार जनवरी 2009 में मुझे अरुण अन्तर्राष्ट्रीय अभियान दल, नेपाल द्वारा फिर चयनित किया गया और फिर आरम्भ हुआ एवरेस्ट की तैयारियों का दौर। मै बताना चाहूँगा कि एवरेस्ट आरोहण का खर्चा एक व्यक्ति हेतु लगभग 22 से 25 लाख तक आता है। मै एक साधारण मध्यम परिवार से था इसलिये मुझे इस हेतु अभियान से पूर्व एक आर्थिक एवरेस्ट पर भी सफलतापूर्वक आरोहण करना था। मैने स्पोंसरशिप पाने के लिये अथक प्रयास किये पर मुझे प्रायोजक नहीं मिल पाए। मुझे मेरे शहर चूरु से कुछ आर्थिक मदद शहरवासियों ने मिलकर जरुर की, किन्तु वो अभियान के लिये अपर्याप्त थी। अन्ततः मेरी इस महत्वकांक्षा एवं युवा शक्ति ने एक बड़ा रुप लिया और मैने 3 बड़े ऋण लिये। कहते हैं प्रस्तुतीकरण किसी वस्तु की सबसे अहम चीज होती है। एवरेस्ट अभियान अब सिर्फ मेरा नहीं रहा था, इससे पूरा राजस्थान व पूरा देश जुड़ने लगा था क्योंकि राजस्थान पत्रिका ने मेरे विचारों और इस अभियान को जिस तरीके से देश के सामने प्रस्तुत किया, वो एक मील का पत्थर साबित हुआ। लगभग तीन माह की तैयारियों व अति व्यस्त दिनचर्या के बाद, 15 मार्च को मंै अपने गृहनगर चूरु से एक भव्य समारोह के साथ एवरेस्ट महाभियान हेतु रवाना हुआ। जिला प्रशासन व नगरवासियों ने बहुत प्यार और नम आँखों से मुझे रवाना किया। मैं सच बताना चाहूँगा कि मैंने सबकी आँखों में देखा कि सब चाहते थे कि मै एवरेस्ट विजय करुँ, उन सबको मुझसे बहुत अपेक्षाएं थीं।

16 मार्च, जोधपुर हाउस, नई दिल्ली से मुझे इस महाभियान हेतु माननीय मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने फ्लैग आफ किया, उन्हांेने आईस एक्स (बर्फ की विशेष कुल्हाड़ी) पर लगा भारतीय तिरंगा मुझे प्रदान किया, जो कि खुशकिस्मती से माउण्ट एवरेस्ट के शिखर तक पहुँचा। 18 मार्च को विमान द्वारा दिल्ली से काठमाण्डू पहुंचने के बाद आरम्भ हुआ तकनीकी तैयारी व खरीदारी का सिलसिला। मैंने आरोहण का कुछ विशेेष सामान विदेश से मंगवाया था जिस पर बहुत भारी कर मुझे देना पड़ा। पर्वतारोहण में विशेषकर एवरेस्ट अभियान में काम आने वाले उपकरण, विशेष पोशाकें, विशेष जूते व आॅक्सीजन मास्क व सिलेंडर बहुत महंगे होते हंै। एवरेस्ट पर एक आरोही की निजी किट भी औसतन 5 लाख रुपये तक आती है। सारी तैयारियों व कागजी कार्यवाही के पश्चात हमारा सात सदस्यीय आरोही दल 26 मार्च को विशेष छोटे विमान द्वारा लुकला पहुँच गया । लुकला 9000 फीट पर स्थित एक स्थान है, यहाँ से ही एवरेस्ट अभियान की पर्वतीय पदयात्रा शुरू होती है। 26 मार्च को ही दल क्यूक्डमैक्स नामक स्थान पर पहुँचे और अगले दिन यूकेप्स नामक स्थान पर पहुँच गये। यूकेप्स यहाँ का बहुत प्रसिद्ध स्थान हैं, इसे शेरपालैण्ड भी कहते हैं। यहाँ से हम धीरे-2 उच्च हिमालय में प्रवेश कर रहे थे, आगेे चलकर हम डिंगबोचे, लोबुचे, गोरखशेप पहुँचे। 2 अपेे्रल को गोरखशेप पहुँचकर मैने स्वयं को अस्वस्थ महसूस किया, कारण यह था कि मैं वातावरण अनुकुलनशीलता के नियमों के विरुद्ध कुछ तेज चढता हुआ ऊँचाई वाले स्थानों पर गया था। मैं अगले दिन वहाँ से वापस नीचे उतरा और मैने डिँगबोचे नामक स्थान पर 2 दिन आराम किया फिर पूर्ण रूप से स्वस्थ होने के पश्चात मैं 7 अप्रेल को एवरेस्ट के बेस केम्प (17500 फीट) की ऊँचाई पर फिर जा पहुंचा।
9 अपे्रल को मैं और मेरे आरोही दल के सदस्यों ने मिलकर ग्लेशियर से पत्थर इकठ्ठे किये और एक छोटे चबूतरेनुमा मन्दिर बनाया, सारा दिन पत्थरों को काटने-छांटने व आकृति देकर व्यवस्थित करने में निकल गया। आज 12 अप्रेल थी, मैं सुबह 4ः30 बजे ही अपने टैन्ट से बाहर आ गया, क्योंकि आज अभियान आरंभ पूजा थी। 8ः30 बजे लामा जी ने आकर मंत्रोच्चार किया व रीतिरिवाज से 2 घण्टे की पूजा की। लामा जी के जाने के बाद मैने पूजा की और मेरे द्वारा ले जाई गई हनुमान जी की काष्ठ प्रतिमा को मंदिर पर लगा दिया। मैं बहुत खुश था क्योंकि कल से क्लाइंबिंग शुरू होने वाली थी।
12 अप्रेल की मध्यरात्रि को 1ः00 बजे मैं और शेरपा लाकपा रागँदू कैम्प-1 स्थापित करने के लिये निकल पड़े। लगभग 1 घण्टे चलने के बाद हम खुम्बु आईस फाॅल की भूल भूलैया में चल रहे थे, बड़े-बड़े इमारतनुमा आईस ब्लाॅक्स के बीच से रात को रस्सियाँ लगाते व सीढियों की मदद से गहरी-2 हिमदरारों को अपनी हैड टार्च की रोशनी में पार कर रहे थे। रात भर चलने के बाद जब सूर्योदय हुआ तब मैंने सूरज की रोशनी में महसूस किया कि मंै किस खतरनाक क्षेत्र में आरोहण कर रहा था, मेरा पूरा शरीर थक गया था और प्रातः 9ः00 बजे तक मैं कैम्प-1 से 1 घण्टे दूर था। मैंने जबरदस्ती ना करते हुये वापस बैस कैम्प लौटने का निर्णय लिया और दोपहर तक थका माँदा बैस कैम्प लौट आया। चूकिं आज आरोहण का पहला दिन था इसलिये इतनी थकान होना जायज था।
15 अप्रेल की मध्यरात्रि को मंै और लाकपा शेरपा फिर चल दिये कैम्प-1 स्थापित करने हेतु, किन्तु इस बार मेरी चाल अधिक सधी हुई और तेज थी, मै और लाकपा सुबह 8ः00 बजे शिविर-1 के स्थान पर पहुँच गये, हवायें बहुत तेज थी। यह स्थान 19500 फीट की ऊँचाई पर था व चारांे तरफ विशाल खुम्बु ग्लेशियर की बर्फ थी। हमने फटाफट टैण्ट लगाया और सारे सामान को उसमें रखा, तेज हवाओं से टैण्ट हिल रहा था। मैंने वातावरण अनुकूलन हेतु एक दिन व एक रात उस ऊँचाई पर बिताए व अगले दिन वहाँ से वापस बेस कैम्प लौट आया।
मैं यहाँ यह उल्लेख करना चाहूँगा कि पर्वतारोहण में हम किसी भी बड़े शिखर पर सीधे आरोहण नहीं कर सकते हैं, उसके लिये हमे अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों पर कई बार जाकर वापस आना होता है।
प्रथम रुट बनाना, रस्सियाँ लगाना फिर खाने का सामान व अन्य उपकरण ऊपर वाले शिविरों में रखकर वापस आना व अपने शरीर को वहाँ की जलवायु के अनुसार फिट बनाना इत्यादि।
इस प्रकार एवरेस्ट आरोहण के इस अभियान में मुझे मशक्कत करते 45 दिन निकल गये। मेरे सात सदस्यीय आरोही दल में मैं गौरव शर्मा (भारत) व एक अन्य भारतीय था, दो सदस्य स्वीडन, एक सदस्य साउथ अफ्रिका, दल का नेता (फिनलैण्ड) व नेपाल से दो सदस्य शेरपा लाकपा राँगदू व कर्मा थे।
आधार शिविर पर विश्व के अन्य दलों में मंै काफी लोकप्रिय था। 19 अप्रेल को मैं काफी खुश था, क्यांेकि उस दिन नेहरु पर्वतारोहण संस्थान व भारतीय सेना के पर्वतारोहियों का दल एवरेस्ट आधार शिविर पहुँच गया था उन लोगांे का अपना अलग दल था किन्तु भारतीय एवं परिचित होने की खुशी मुझे थी। मैं उनके शिविर में जाकर उनके नेता कर्नल मंसूर से एवं सभी सदस्यों से गर्मजोशी से मिला।
जैसे-2 दिन बीत रहे थे वैसे-2 एवरेस्ट आरोहण की जटिलतायें बढती जा रही थी, अप्रेल अन्तिम सप्ताह व मई की शुरुआत में मंै कई बार शिविर-2 (21000 फीट) व शिविर-3 के करीब गया।
एक बार मैं वातावरण अनुकूलन व ऊँचाई के क्षेत्रांे को परखने पहुँचा, तब रात को तूफान शुरू हो गया, अब तक सिर्फ नाम ही सुना था जेट स्ट्रीम्स का किन्तु अब मैं उसे महसूस कर पा रहा था, जेट स्ट्रीम्स 100 किमी प्रति घण्टे से तेज हवाओं को कहते हैं, उस रात मेरा छोटा टैण्ट पत्ते की तरह काँप रहा था, तापमान शून्य से 30 डिग्री नीचे चला गया था। मैं सारी रात टैण्ट में घबराया हुआ बैठा रहा, आशा थी कि सुबह तक तूफान रुक जायेगा, किन्तु प्रकुति को कुछ और ही मंजूर था। उस तूफान में लाकपा मेरे टैण्ट में आये और मुझे हिम्मत रखने को कहा। लगातार 4 रात और 5 दिन तूफान चलता रहा और हवायें और तेज हो गयी। 21 हजार फीट की उस ऊँचाई पर भोजन और पानी लेना हो या शौच जाना सब एक जद्दोजहद बन गया था। मंै पत्ते की तरह फड़फड़ाते उस विदेशी टैण्ट में अत्यधिक शीत और मानसिक प्रताड़नाओं से जूझ रहा था। अगले दिन मुझे अपने वाकी-टाकी सेट पर बेस कैम्प से सूचना मिली कि ये तेज हवायें अगले 4-5 दिन लगातार चल सकती हैं, ये सुनकर दिमाग सुन्न जैसे हो गया। मैं घबरा गया था, मैने लाकपा से मंत्रणा की और कहा कि जान बचानी है तो यहाँ से वापस नीचे उतरना पड़ेगा और जल्दी सुबह ठण्ड से अकड़े बदन और सुन्न अंगुलियों से पैकिंग करके मैं वापस उन तेज हवाओं में चल पड़ा। बर्फ के उस बियावान में चलते-चलते सारा दिन निकल गया, दिन में सिर्फ एक चाॅकलेट खाकर मैं शाम को खुम्बु आईस फाॅल को पार करता हुआ व ताजा गिरी बर्फ में भीगा हुआ अधमरा सा आधार शिविर पहुँचा।
आधार शिविर पर मेरा दल मौसम साफ होने की बाट जोह रहा था कि अचानक 6 मई को खुम्बु आईस फाॅल में आये एक एवलान्च में दो शेरपा आरोहियों की मौत से व कैम्प-3 के निकट आरोहण करते हुऐ एक आरोही की टांग टूट जाने से सारे दलों में हड़कम्प मच गया । इस प्रकार की दुर्घटनायें हमें हतोत्साहित कर जाती हैं।
दिन बीतते गये, खराब होते मौसम ने पूरे दलों को निराश कर दिया था विभिन्न दलों से बात करके व मौसम विभाग द्वारा पता लगा कि इस वर्ष मौसम ज्यादा खराब है और हवायें भी अपेक्षाकृत ज्यादा तेज चल रही हैं। दिमाग में एवरेस्ट पर चढ़ने का एक ऐसा जुनून चल रहा था, जिसे मै शायद आपको शब्दों में बयान ना कर सकूँ। एवरेस्ट के उस भयंकर मौसम से लोहा लेने के बाद दुनियाँ के इस तीसरे ध्रुव पर पहँचने का इरादा और भी अधिक पक्का हो गया। फलतः मैने चोटी पर जाने की योजना फिर शुरु कर दी, मैं एवरेस्ट के खराब मौसम व तूफानों का चस्का तो पहले ही ले चुका था, पर मैंने उच्च शिविर के स्थानों की भी भली भँाति देख लिया था।
मैंने 16 मई की शाम अपने टैण्ट में पूजा अर्चना की व अपने परिजनों, मित्रो व शुभचिन्तकों को याद किया व सामान पैक कर लिया। 17 मई को सुबह 4ः00 बजे भगवान को याद करके फिर निकल पड़ा आधार शिविर से एवरेस्ट की तरफ। खुम्बु आईस फाॅल व हिमदरारों को पार करता हुआ मैं उसी दिन दोपहर 11ः00 बजें शिविर-2 (21000 फीट) की ऊँचाई पर पहुँच गया। अगले दिन 18 मई को मैं शिविर-3 हेतु चल पड़ा, शिविर-2 से निकलते ही 2000 फीट की खड़ी दीवार (आईस वाॅल) पर आरोहण शुरु हो गया, एवरेस्ट के इस भाग पर आरोहण करना एक जटिल कार्य हैं। एकदम खड़ी चढाई पर आरोहण करते-2 मेरी ताकत कम होती महसूस हो रही थी, शिविर-3 पहुँचते-2 मैं बहुत थक गया था। शिविर-3 ल्होत्से पर्वत की खड़ी ढलान में लगाया जाता हैं, टैण्ट लगाने हेतु सपाट स्थान का अभाव होता हैं। उस ढलान में मैं टैण्ट में सीधा भी नहीं सो सकता। मैं थका माँदा जल्दी से टैण्ट में घुस गया, पर अचानक मैंने अपनी अंगुलियों को ठण्डा महसूस किया और मेरी अंगुलियाँ बहुत दर्द करने लगी, ये दर्द बढता ही जा रहा था, लग रहा था मेरी अंगुलियाँ जम रही हैं, और मुझे दर्द के मारे जोर से रोना आ गया ...
रात हो चली थी, और फिर शुरु हो गयी तेज हवायें। सारी रात उस तेज निर्दयी हवा ने सोने नहीं दिया। अचरज तो यही था कि जब एवरेस्ट का विकराल मौसम अधिक ऊँचाई पर आरोहियों को झकझोरने में लगा था, तो निचले शिविरों में हमारे साथियों को इस आँधी तूफान का अता-पता तक नहीं था।
अगली सुबह 19 मई को मौसम ने हम पर कुछ तरस दिखाया, हवा कम हो चली थी और मौसम अपेक्षाकृत पहले से साफ था। मै फटाफट अपने स्लीपींग बैग से उठा, पैकिंग की और लाकपा शेरपा से आरोहण योजना हेतु सीमित शब्दों में बात की। सुबह जल्दी ही मै उस खतरनाक चढाई (ल्होत्से ढाल) पर निकल पड़ा एवरेस्ट के अन्तिम शिविर साउथ काॅल के लिये। शिविर-3 से निकलते ही ल्होत्स वाॅल पर तकनीकी आरोहण शुरु हो गया, तत्पश्चात यैलो बैण्ड नामक एक 100 फीट ऊँची खड़ी चट्टान को हमने बड़ी कठिनाई से पार किया। धीरे-2 मुझे थकान भी महसूस हुई, लाकपा शेरपा कुछ ही देर में मुझसे आ मिले, उन्हाने देखा कि मंैने आॅक्सिजन मास्क तो लगा रखा था लेकिन उसे आॅन नहीं किया था, उन्होने आॅक्सीजन सप्लाई के रेग्यूलेटर को आॅन कर दिया। 10-15 मिनट बाद ही मुझे लगा मेरे बदन में कुछ गरमाहट आ गयी है और मेरी चाल कुछ तेज हो गई।
दोपहर 1ः00 बजे मैं डेथ जोन 8000 मीटर की ऊँचाई पर साउथ काॅल पहुँच गया था। साउथ काॅल पृथ्वी पर सबसे कठोर स्थान के नाम से विख्यात है। यहाँ मनुष्य जीवन सम्भव नहीं है। मैंने फटाफट खुद को अपने छोटे से टैण्ट में घुसाया और लग गया शिखर तैयारियों में। यहाँ मस्तिष्क बहुत धीरे कार्य करता हैं, हमारे सोचने समझने की शक्ति बहुत क्षीण हो जाती है। मैने टैण्ट की चैन खोलकर एवरेस्ट को कई देर निहारा, मुझे ये सब स्वपन सा लग रहा था। रात के 8ः00 बज चुके थे, मैंने अपने आॅक्सीजन सिलेण्डर अपने बैग में पैक किये और बाकी तैयारियों के साथ अपनी-2 हैड टाॅर्च की रोशनी में रात 8ः45 पर टैण्ट से बाहर निकला। लाकपा शेरपा ने मेरी आॅक्सीजन सप्लाई एवं मैने उनके आॅक्सीजन मीटर को चैक किया और भगवान को याद करके हम चल पड़े शिखर की तरफ। तापमान शून्य से 38 डिग्री नीचे था, उस अँधेरी रात में सांय-सांय करती हवा और उड़ती बर्फ एक भयावह दृश्य उपस्थित कर रहे थे। मैंने देखा मुझसे आगे लगभग 7-8 आरोही कम रफ्तार से चढ रहे थे, मैंने खुद को फिट महसूस किया और उन्हें ओवरटेक करता हुआ उनसे काफी आगे निकल गया। ताजा पड़ी नरम बर्फ ने चढाई में बहुत परेशानी पैदा कर दी, सबसे बुरी बात तो यह थी कि बर्फ ठोस नहीं थी, बर्फ बार-बार नीचे फिसल पड़ती थी, जिसके साथ मैं भी फिसल जाता था, कुछ घण्टे मैं इसी जद्दोजहद में आरोहण करता रहा, अर्द्ध रात्रि को मैं दक्षिणी-पूर्वी धार पर पहुँच गया, जहाँ से सीधा एवरेस्ट की चोटी को रास्ता जाता था, मैंने खुद को एक संकरी धार पर चलता महसूस किया। मैंने अपनी हैड टाॅर्च की रोशनी में दँाई तरफ देखा तो अँधेरा लगा व बाँई तरफ भी अँधेरा था। मैंने महसूस किया कि मैं बाकी आरोहियों से बहुत आगे निकल आया था, और अकेला चढता जा रहा था। लगातार एक के बाद एक कठिन बर्फीली चढाईयाँ व चट्टानों पर चढते सुबह के 4ः00 बज गये थे। सारी रात मैं बिना रुके लगातार चढता गया। सूर्योदय की गुलाबी रोशनी में मैंने देखा कि मैं जहाँ से चढ रहा था वो धार सिर्फ 2-3 फीट चैड़ी थी, मेरे दाँई तरफ 11000 फीट सीधी ढाल चीन और बाँई तरफ 9000 फीट खाई नेपाल की ओर जा रही थी। मेरे रोंगटे खड़े हो गये, मैं एक अलग दुनिया में था। आरोहण के दौरान आरोहियों के शव, एवरेस्ट का विकराल मौसम व इस चढाई ने सारे 33 करोड़ देवी देवता याद दिला दिये। मैंने खुद को सम्भाला और चढाई निरंतर रखी। मैंने सुबह 5ः00 बजे देखा कि ऊँचाई धीरे-धीरे कम हो रही है, एक सफेद गुम्बद जैसी आकृति को मैने चोटी समझा और अपनी ताकत झोंक दी किन्तु जैसे ही मैं उस पर पहुँचा तो पता लगा कि वो साउथ सम्मिट था ना कि शिखर। मैंने देखा कि वहाँ से बिल्कुल खड़ी चट्टानें और दोनों तरफ विशाल खाईयाँ, मौत मुँह खोले खड़ी थी। मैंने देखा सामने एक और चढाई के बाद कुछ नजर नहीं आ रहा था। मैंने खुद को उस फाइनल पुश में झोंक दिया। कुछ देर बाद मैंने देखा कि मुझे चारांे तरफ ढलाने दिख रही थीं, मन में विचार कौंधा कि सफलता बहुत निकट है। कुछ देर बाद हिलेरी स्टेप नामक एक बाधा को पार करने के बाद 20 मई सुबह 6ः15 बजे, बुधवार को मैं दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर माउण्ट एवरेस्ट की चोटी पर खड़ा था। मेरी खुशी पराकाष्ठा पर थी, मेरे आँसुओं ने मेरे गालों का चुंबन किया और वे तुरन्त बर्फ में भी बदल गये। एवरेस्ट पर पहँचते ही मैंने सर्वप्रथम भगवान को याद किया। अपने बैग को खोला और तिरंगा निकाला, हवा कुछ तेज थी। मैंने देर ना करते हुए हमारे भारतीय तिरंगे को एवरेस्ट पर लहरा किया, ये वो पल था जिसका मुझे 10 वर्षो से इन्तजार था। मेरे शिखर पर पहुँचने की सूचना तुरन्त भारतीय दूतावास व पूरे भारत में आग की तरह फैल गई । मेरे गृह नगर में मिठाईयाँ बँटी व जमकर आतिशबाजी हुई। शेरपा लाकपा रांगदू व पेम्बा भी शिखर पर पहुँच गये। लाकपा ने दनादन मेरे फोटो लेने शुरू किये और मंैने उनके। मुझे तिब्बत, नेपाल व भारत के दूसरे पर्वत शिखर साफ दिख रहे थे। उस ऊँचाई से विश्व कैसा दिखाई देता है ये वो ही महसूस कर सकेगा जिसने एवरेस्ट के शिखर को चूमा है।
मैंने खुद को नियन्त्रित किया और लगभग 45 मिनट शिखर पर बिताने के बाद, वापस नीचे की और चल पड़ा। नीचे उतरना सबसे दुर्गम कार्य है। मैं बताना चाहूँगा कि ज्यादातर दुर्घटनायें नीचे उतरते समय ही होती हैं। मैंने अपनी आॅक्सीजन बोटल को सम्भाला, वो पर्याप्त थी। मैंने आवश्यकता से कम आॅक्सीजन का उपयोग किया था। एक रेगिस्थानी क्षेत्र का निवासी होते हुये भी मैं एवरेस्ट पर बिल्कुल फिट था। मैंने संतुलित चाल रखते हुए उतरना जारी रखा। मुझे बिल्कुल भी विश्वास नहीें हुआ कि जब दोपहर 12ः00 बजे कई दल शिखर पर पहुँच रहें थे तब मैं वापस उतरकर साउथ काॅल पहुँच गया था। मैं उस दिन रात साउथ काॅल पर ही सोया। अगले दिन शिविर-2 पहुँचा और 22 मई को मैं लगातार उतरता हुआ आधार शिविर पहुँचा। आधार शिविर पहुँचते ही विभिन्न दलों ने मेरा जोरदार स्वागत किया एवं मिठाइयाँ बांटी गई। यहाँ मैं एक बात का उल्लेख करना चाहुँगा कि अलग दल होते हुये भी पूरे अभियान के दौरान भारतीय दल विशेषकर दल के नेता कर्नल मंसूर व बेस केम्प मैनेजर अवधेश जी से मुझे काफी सहायता एवं प्रोत्साहन मिला। मैं वापसी में 28 मई को काठमाण्डू पहुँचा। जब मंै काठमाण्डू स्थित अपने होटल पहुँचा तो मुझे पता चला कि मुझे नेपाल पर्यटन मंत्रालय का एक निमन्त्रण आया हुआ है, जिसमें अन्र्तगत मुझे 29 मई को अन्तर्राष्ट्रीय सागरमाथा दिवस के अवसर पर एक भव्य समारोह के अन्तर्गत मेरे सफल आरोहण को देखते हुए मुझे सागरमाथा स्वर्ण महोत्सव पदक से सम्मानित किया गया।